
The chalta ✍️ गौरव शासकीय सेवक हैं:बचपन के दिनों का हर इतवार जैसे एक नई रोशनी लेकर आता था — बिना मोबाइल, बिना भागदौड़, बस अपनेपन और सादगी से भरा। आज जब ज़िंदगी तेज़ रफ्तार से भाग रही है, तो दिल अनायास ही उस बीते ज़माने के इतवार को खोजने लगता है, जब हर छोटी चीज़ में बड़ी खुशी मिल जाती थी।
सुबह का मीठा आलस
सुबह की शुरुआत में एक मीठा-सा आलस होता था। देर तक बिस्तर पर पड़े रहना, बाहर के शोर से बेफ़िक्र रहना — जैसे दुनिया कुछ देर के लिए ठहर गई हो।फिर रसोई से आती गरम चाय की खुशबू और दूरदर्शन पर बजते चित्रहार के गाने…हम भाई-बहनें चाय की चुस्कियों के साथ उन गानों पर गुपचुप ठुमके लगाते या आने वाले कल की अनगिनत योजनाएँ बनाते। वो सुकून, वो अपनापन – आज के सबसे महंगे रविवारों में भी नहीं मिलता।
दोपहर की हलचल, पर बिना थकान के
सूरज थोड़ा चढ़ते ही घर एक प्यारी-सी वर्कशॉप में बदल जाता।अम्मा हफ्ते भर के कपड़े धोतीं,बड़े भाई गेहूँ की बोरी लेकर चक्की जाते,और मैं नाई की दुकान पर बाल कटवाने की बारी का इंतज़ार करता।हर कोई व्यस्त था, लेकिन थकान किसी को नहीं होती थी —क्योंकि यह सब “हमारा एक साथ होने” का हिस्सा था।
शाम का स्वाद, जो अब भी ज़ुबान पर है
दिन के सारे छोटे-बड़े कामों के बाद, शाम जैसे कोई त्यौहार बन जाती थी।माँ के हाथ से बना कुछ खास — पूड़ी-सब्ज़ी, सेवई या बेसन का हलवा —बस वही इतवार की असली पहचान था।दाल-चावल वाले बाकी छह दिनों के बाद,
वो स्वाद किसी राजकीय भोज से कम नहीं लगता था।
खुशियों का चार्जिंग स्टेशन
वो दिन पूरे सप्ताह की थकान मिटा देता था।
मस्ती, ठहाके, परिवार की बातें —सब मिलकर जैसे अगले छह दिनों के लिए नई ऊर्जा दे जाते थे।वो इतवार एक ‘रिचार्ज डे’ नहीं,बल्कि दिल को सुकून देने वाला त्योहार था।
आज का इतवार — और यादों की गली
अब ज़िम्मेदारियाँ, नौकरियाँ और व्यस्त दिनचर्या ने
कैलेंडर के सातों दिन एक-से बना दिए हैं।इतवार अब पहले जैसा नहीं रहा।फिर भी, जब कभी मन थकता है,तो वहबचपन का इतवार याद आता है —जहाँ न कोई मोबाइल था, न तनाव,बस माँ की मुस्कान, चाय की खुशबू,और घर की हँसी से भरा एक छोटा-सा स्वर्ग था। शायद सादगी ही जीवन की सबसे बड़ी विलासिता होती है और बचपन का हर इतवार इसका सबसे सुंदर प्रमाण था।