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दीपावली: जब त्योहार सिर्फ रोशनी नहीं, जीवन की लय हुआ करता था

गाँव की मिट्टी से निकली सादगी बनाम आज के "स्टेटस" की दीपावली

The Chalta/✍️ गौरव /दीपावली विशेष 

दीपावली… यह महज एक त्योहार नहीं था, यह तो जीवन की मधुर लय थी—जिसकी धुन बहुत पहले से ही मन में बजने लगती थी।गाँव के खेतों में पकते धान की भीनी खुशबू, घर की बाड़ी में खिले तरोई, कुम्हड़ा और करेले के फूल—ये सब त्योहार के आगमन की अग्रिम सूचना देते थे।गलियों से आती गोबर और चुने से लिपे हुए चौकों की ताज़ी महक, और उसमें रची-बसी एक विशेष स्वच्छता… यह सब बचपन की उन दीपावलियों की याद दिलाते हैं जब हम गाँव में रहा करते थे।

गाँव की चहल-पहल और उत्साह का पर्व

त्योहार शुरू होने से बहुत पहले ही पूरे गाँव में एक अलग तरह की चहल-पहल शुरू हो जाती थी।घर-घर में तैयारी का एक महाअभियान चल पड़ता था—दीवारों की पुताई, चौरे की मरम्मत, और रंगोली से सजे दरवाज़े।सफाई की इस मुहिम में बच्चे भी शामिल होते थे, और बरसों पुरानी चीज़ें अचानक मिल जाना, किसी खजाने मिलने जैसा सुख देता था।

पिताजी जब नए कपड़े और पटाखों का पुलिंदा लेकर आते, तो हमारी उत्सुकता और भी बढ़ जाती।माँ रसोई में लग जातीं—गुजिया, नमकपारा, चकली, और बेसन के लड्डू… जिनकी खुशबू पूरे घर को भर देती थी।हमारा काम होता—पटाखों को धूप में सुखाना, गिनना, और फिर उन्हें सुरक्षित रखना।वो टिकली पटाखे, तोता छाप की लड़ियाँ, फूलझड़ी, अनार, आलू दनाके और “लक्ष्मी पटाखा”—हर चीज़ अपने में एक जादू थी।

दीयों की रौशनी और श्रद्धा की चमक

दीपावली की शाम के लिए कुम्हार के मिट्टी के दिए और उनमें जलने वाला अंडी का तेल एक दिव्य प्रकाश की तैयारी होती थी।और इन सबके बीच, गाँव की आत्मा बसती थी गौरा-गौरी की बारात में—गढ़वा बाजा, दफड़ा, गुदुम, निसान और मोहरी की वो खास धुन, जिसमें भक्ति और उल्लास एक साथ बहता था।उस समय दीपावली केवल घरों में नहीं, मनों में जगमगाती थी।

आज की “स्टेटस दीपावली”

आज भगवान ने सामर्थ्य दिया है—हम ढेरों पटाखे, मिठाइयाँ और कपड़े खरीद सकते हैं।लेकिन अब दीपावली मन से ज़्यादा मोबाइल स्टेटस में मनाई जाती है।फोटोशूट के लिए सजे घर, इंस्टाग्राम पर “#DiwaliVibes”, और व्हाट्सएप पर “Happy Diwali from our family to yours”  यही अब उत्सव का नया रूप बन गया है।

पहले दीपक जलते थे तो गाँव की गलियाँ उजियारी हो जाती थीं,अब रिंग लाइट जलती है तो स्क्रीन जगमगा उठती है।
पहले बुआ-चाची, पड़ोसी, और मित्र घर आकर “शुभ दीपावली” कहते थे,अब वो एक “फॉरवर्डेड मैसेज” बनकर रह गया है।

अंततः… दीपावली का असली उजाला

हाँ, आज साधन अधिक हैं, पर सादगी कम।
शोर अधिक है, पर वह आत्मीयता नहीं।
उस बचपन की दीपावली का इंतज़ार, सादगी और गाँव की सामूहिक खुशी—वो अनमोल थी, जिसका कोई मोल नहीं।

क्योंकि दीपावली की असली रौशनी न पटाखों में है, न LED लाइट्स में—वो तो बस दिलों की उस गर्माहट में है,
जो एक-दूसरे के लिए जलते दीए की लौ में दिखती थी।

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